Saturday, July 12, 2014

खुली किताब

केहता रहा सबसे ।
खुली किताब सा हूँ मैं ॥

पर वज़न इतना।
की उठा नहीं सकता कोई॥

कोरे से कागज़ पे।
सफेद स्याही से लिखा हूँ अपना कच्चा चिट्टा॥

अल्फ़ाज़ इतने उल्झे ।
कोई इक कड़ी भी समझ न पाए कोई ॥

चाहता हूँ बार, समझे कोई ।
पर हर कोशिश पे, अपने ही सन्नाटे में सेहम सा जाता हू।

असर इतना खुदी पे।
की हर कोशिश पे, खुद ही सील देता हूँ खुद को ॥

 ऊमीदे की लहर है,  बदलेगी मेरी सोच।
खुदी को खुद ही समझ लूँ में कभी॥

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