केहता रहा सबसे ।
खुली किताब सा हूँ मैं ॥
पर वज़न इतना।
की उठा नहीं सकता कोई॥
कोरे से कागज़ पे।
सफेद स्याही से लिखा हूँ अपना कच्चा चिट्टा॥
अल्फ़ाज़ इतने उल्झे ।
कोई इक कड़ी भी समझ न पाए कोई ॥
चाहता हूँ बार, समझे कोई ।
पर हर कोशिश पे, अपने ही सन्नाटे में सेहम सा जाता हू।
असर इतना खुदी पे।
की हर कोशिश पे, खुद ही सील देता हूँ खुद को ॥
ऊमीदे की लहर है, बदलेगी मेरी सोच।
खुदी को खुद ही समझ लूँ में कभी॥
खुली किताब सा हूँ मैं ॥
पर वज़न इतना।
की उठा नहीं सकता कोई॥
कोरे से कागज़ पे।
सफेद स्याही से लिखा हूँ अपना कच्चा चिट्टा॥
अल्फ़ाज़ इतने उल्झे ।
कोई इक कड़ी भी समझ न पाए कोई ॥
चाहता हूँ बार, समझे कोई ।
पर हर कोशिश पे, अपने ही सन्नाटे में सेहम सा जाता हू।
असर इतना खुदी पे।
की हर कोशिश पे, खुद ही सील देता हूँ खुद को ॥
ऊमीदे की लहर है, बदलेगी मेरी सोच।
खुदी को खुद ही समझ लूँ में कभी॥
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